उसकी आँखों से छलकते आंसू बता रहे थे की वो अंदर से कितनी दुखी है और दुखी हो भी क्यों न आखिर कौन सी औरत पूरा दिन खट कर कमाने के बाद अपनी सारी कमाई अपने पति को इस डर से सौप देंगी की अगर नहीं दिया तो उसकी पिटाई लात जूतों से हो जाएगी। ये एक दिन का भी किस्सा नहीं है कि चलो इसे भुला दिया जाये । रोज ही शराब पीकर पत्नी को अपने पाँव की जूती समझ कर उसे प्रताड़ित करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा है. वो भली -भांति जानता है की उसकी पत्नी का साथ देने के लिए उसके माता -पिता हैं नहीं और न ही उसके पास आर्थिक निर्भरता क्योंकि पत्नी की पूरी कमाई पर उसका कब्ज़ा है . इस परिस्थिति में उसे छोड़कर वो कैसे जा सकती है , उसके पास सर छुपाने के लिए कोई दूसरी छत है ही नहीं। छत एक महिला के लिए कितनी आवश्यक है ये वही बता सकती है जो उसके आभाव में मर -मर कर जी रही है। ऐसी एक नहीं सैकड़ो महिलाये है जो समाज की नजर में अपने पैरो पर खड़ी है किन्तु घर की चहारदीवारी में बेबस नारी है। नारी की मानसिक ,शारीरिक प्रताड़ना की एक नहीं अनेको आपबीती है , कुछ लड़कियां सुबह पाँच बजे से रात के दस बजे तक कही फुल टाइम तो कही पार्ट टाइम कार्य करती है ताकि वो अपनी शादी के लिए कुछ रूपये इकट्ठे कर सके और अपने सपनों में रंग भर सके उसके बाद भी उन्हें अपने माता -पिता, भाई -बहनो से सुनना पड़ता है कि मेमसाहिबा के पास घर के कार्यो में हाथ बटाने का समय ही नहीं है। सैकड़ों लड़कियां ऐसी भी है जो अपने को आर्थिक निर्भर बनाने के लिए बसों ,लोकल ट्रेनों में लटक कर ,खड़े हो कर , मजनुओ के फिकरे सुनते हुए सफर करती है कभी मज़बूरी वश तो कभी अपनी मर्जी से जिंदगी जीने की इच्छा वश। नारीसशक्तीकरण के दौर में हर लड़की की चाहत है की वो नौकरी करे। नौकरी मिलने के बाद घर बसाना उसके बाद पति ,बच्चे उनकी जिम्मेदारियां। छोटे बच्चे को आया के भरोसे छोड़कर नौकरी करने वाली महिला भी कुंठाग्रस्त है की अगर वो नौकरी छोड़ देंगी तो उसे अपने पति और उसके घरवालों के रहमोकरम पर जीना होगा और अगर नौकरी जारी रखती है तो उसके मासूम बच्चे के साथ उसकी पीठ पीछे आया क्या कर रही होगी । अगर घर में सास- ससुर है तो बच्चों की तरफ से मुक्त रहती है किन्तु घर जाकर उनके लिए खाना भी पकाना है क्योंकि वे बाहर का बना खाना नहीं खाएंगे । नौकर रखती है तो ऑफिस से लौटने के बाद सास की दस शिकायते तैयार मिलती है। देर से आती है तो तानों की बौछार मिलती है।पत्नी या बहु का कार्य किसी को दिखाई नहीं देता उसकी थकान , उसकी पीड़ा इससे किसी को कोई लेना देना नहीं क्योंकि घर के कार्य औरत ही करती है वो तो पुरुष कर नहीं सकता भले ही दोनों एक ही आफिस में एक ही पोस्ट पर कार्यरत हो। ये कड़वी सच्चाई निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग के साथ अधिक जुडी है। एक तरफ नारी को सशक्त बनाने के लिए आये दिन नए कानून ,नयी योजनाए तैयार होती है दूसरी तरफ पुरुष प्रधान मानसिकता ज्यों की त्यों रहती है। औरतो की सफलता और उन्हें सशक्त बनाने लिए बने कानून का जब कभी कोई महिला दुरूपयोग करती है तो पुरुष समाज समस्त नारियों को एक ही लाठी से हाँकने लगते है बिना विचारे की आज भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा को पूर्ण रूप से रोका नहीं जा सका ,दहेज प्रथा अभी भी कितनी कोमल नारियों को शारीरिक मानसिक कष्ट दे रही है उन्हें अग्नि के हवाले कर रही है। जो भी हो नारी सशक्तिकरण की दौड़ में रोबोट बनी महिला तब तक सुखी नहीं हो सकती जब तक की बेटो को पुरुष के झूठे अहम् से बाहर नही निकालती उन्हें ये नही सिखाती की उसकी पत्नी भी एक इंसान है वो भी बाहर काम करके थक जाती होगी। घर के छोटे -मोटे कामों में मदद करना सम्मान के विरुद्ध नहीं है क्योंकि घर उनका भी उतना ही है जितना की पत्नी का। जिस दिन स्त्री -पुरुष की सोच में बदलाव आ जायेगा उसी दिन समाज भी परिवर्तित हो जायेगा.
Tuesday, 14 March 2017
महिला स्वालंबन ,आवश्यकता है मानसिकता में परिवर्तन की
उसकी आँखों से छलकते आंसू बता रहे थे की वो अंदर से कितनी दुखी है और दुखी हो भी क्यों न आखिर कौन सी औरत पूरा दिन खट कर कमाने के बाद अपनी सारी कमाई अपने पति को इस डर से सौप देंगी की अगर नहीं दिया तो उसकी पिटाई लात जूतों से हो जाएगी। ये एक दिन का भी किस्सा नहीं है कि चलो इसे भुला दिया जाये । रोज ही शराब पीकर पत्नी को अपने पाँव की जूती समझ कर उसे प्रताड़ित करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा है. वो भली -भांति जानता है की उसकी पत्नी का साथ देने के लिए उसके माता -पिता हैं नहीं और न ही उसके पास आर्थिक निर्भरता क्योंकि पत्नी की पूरी कमाई पर उसका कब्ज़ा है . इस परिस्थिति में उसे छोड़कर वो कैसे जा सकती है , उसके पास सर छुपाने के लिए कोई दूसरी छत है ही नहीं। छत एक महिला के लिए कितनी आवश्यक है ये वही बता सकती है जो उसके आभाव में मर -मर कर जी रही है। ऐसी एक नहीं सैकड़ो महिलाये है जो समाज की नजर में अपने पैरो पर खड़ी है किन्तु घर की चहारदीवारी में बेबस नारी है। नारी की मानसिक ,शारीरिक प्रताड़ना की एक नहीं अनेको आपबीती है , कुछ लड़कियां सुबह पाँच बजे से रात के दस बजे तक कही फुल टाइम तो कही पार्ट टाइम कार्य करती है ताकि वो अपनी शादी के लिए कुछ रूपये इकट्ठे कर सके और अपने सपनों में रंग भर सके उसके बाद भी उन्हें अपने माता -पिता, भाई -बहनो से सुनना पड़ता है कि मेमसाहिबा के पास घर के कार्यो में हाथ बटाने का समय ही नहीं है। सैकड़ों लड़कियां ऐसी भी है जो अपने को आर्थिक निर्भर बनाने के लिए बसों ,लोकल ट्रेनों में लटक कर ,खड़े हो कर , मजनुओ के फिकरे सुनते हुए सफर करती है कभी मज़बूरी वश तो कभी अपनी मर्जी से जिंदगी जीने की इच्छा वश। नारीसशक्तीकरण के दौर में हर लड़की की चाहत है की वो नौकरी करे। नौकरी मिलने के बाद घर बसाना उसके बाद पति ,बच्चे उनकी जिम्मेदारियां। छोटे बच्चे को आया के भरोसे छोड़कर नौकरी करने वाली महिला भी कुंठाग्रस्त है की अगर वो नौकरी छोड़ देंगी तो उसे अपने पति और उसके घरवालों के रहमोकरम पर जीना होगा और अगर नौकरी जारी रखती है तो उसके मासूम बच्चे के साथ उसकी पीठ पीछे आया क्या कर रही होगी । अगर घर में सास- ससुर है तो बच्चों की तरफ से मुक्त रहती है किन्तु घर जाकर उनके लिए खाना भी पकाना है क्योंकि वे बाहर का बना खाना नहीं खाएंगे । नौकर रखती है तो ऑफिस से लौटने के बाद सास की दस शिकायते तैयार मिलती है। देर से आती है तो तानों की बौछार मिलती है।पत्नी या बहु का कार्य किसी को दिखाई नहीं देता उसकी थकान , उसकी पीड़ा इससे किसी को कोई लेना देना नहीं क्योंकि घर के कार्य औरत ही करती है वो तो पुरुष कर नहीं सकता भले ही दोनों एक ही आफिस में एक ही पोस्ट पर कार्यरत हो। ये कड़वी सच्चाई निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग के साथ अधिक जुडी है। एक तरफ नारी को सशक्त बनाने के लिए आये दिन नए कानून ,नयी योजनाए तैयार होती है दूसरी तरफ पुरुष प्रधान मानसिकता ज्यों की त्यों रहती है। औरतो की सफलता और उन्हें सशक्त बनाने लिए बने कानून का जब कभी कोई महिला दुरूपयोग करती है तो पुरुष समाज समस्त नारियों को एक ही लाठी से हाँकने लगते है बिना विचारे की आज भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा को पूर्ण रूप से रोका नहीं जा सका ,दहेज प्रथा अभी भी कितनी कोमल नारियों को शारीरिक मानसिक कष्ट दे रही है उन्हें अग्नि के हवाले कर रही है। जो भी हो नारी सशक्तिकरण की दौड़ में रोबोट बनी महिला तब तक सुखी नहीं हो सकती जब तक की बेटो को पुरुष के झूठे अहम् से बाहर नही निकालती उन्हें ये नही सिखाती की उसकी पत्नी भी एक इंसान है वो भी बाहर काम करके थक जाती होगी। घर के छोटे -मोटे कामों में मदद करना सम्मान के विरुद्ध नहीं है क्योंकि घर उनका भी उतना ही है जितना की पत्नी का। जिस दिन स्त्री -पुरुष की सोच में बदलाव आ जायेगा उसी दिन समाज भी परिवर्तित हो जायेगा.
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